गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में चल रहे एक बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के बीच एक ऐतिहासिक मस्जिद के द्वार पर कानूनी विवाद थम गया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अहमदाबाद के सरसपुर क्षेत्र में स्थित करीब 400 वर्ष पुरानी मंचा मस्जिद के पक्ष द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें इस मस्जिद का आंशिक विध्वंस रोकने की मांग की गई थी।
मुख्य बिंदु
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मामला उस रोड-वाइडनिंग प्रोजेक्ट से जुड़ा है जिसे Ahmedabad Municipal Corporation (AMC) ने शुरु किया था, और जिसके तहत मंचा मस्जिद के परिसर का एक हिस्सा खाली करवाया जाना था।
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सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इस मामले में नगरपालिका तथा राज्य प्राधिकरणों ने “सार्वजनिक हित” के आधार पर कार्रवाई की है, और इसलिए याचिका को मंजूरी नहीं दी गई।
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न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि मस्जिद की नोटिस एवं प्रक्रिया में नगरपालिका के विशेष अधिकारों का प्रयोग हुआ है, जिनके तहत वक्फ अधिनियम की कुछ धाराओं का प्रयोग नहीं किया गया।
मायने और चुनौतियाँ
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यह फैसला उस संतुलन को दर्शाता है जो विकास-कार्यों और सांस्कृतिक-धार्मिक विरासत के बीच बनाना पड़ता है। जब एक पुरानी धार्मिक इमारत के हिस्से को सड़क चौड़ी करने के लिए छोड़ा जाता है, तो सवाल उठते हैं—क्या उसके सांस्कृतिक महत्व को पर्याप्त रूप से देखा गया है?
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स्थानीय समुदायों में इससे असंतोष की संभावना है, क्योंकि मस्जिद के हिस्से का ह्रास धार्मिक एवं सामाजिक असुरक्षा की भावना पैदा कर सकता है।
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दूसरी ओर, नगरपालिका का तर्क है कि ट्रैफिक सुधार, शहर-विकास और सार्वजनिक सुविधा के लिए यह कदम आवश्यक था। इस तरह का मामला भविष्य में अन्य प्रोजेक्ट्स के लिए भी स्थापित उदाहरण बन सकता है।
आगे क्या देखने योग्य है
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मस्जिद ट्रस्ट व स्थानीय समुदाय इस फैसले के बाद क्या आगे की रणनीति अपनाएंगे — क्या वे पुनरावलोकन याचिका दाखिल करेंगे या समाधान-पार्टी से वार्ता करेंगे?
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विकास-प्रोजेक्ट के चलते आबादी, पारिस्थितिकी, ट्रैफिक सिस्टम और शहर-योजना पर क्या असर होगा, इसे कैसे मापेंगे?
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क्या भविष्य में धार्मिक या ऐतिहासिक संपत्ति को प्रभावित करने वाले विकास-प्रोजेक्ट्स में अतिरिक्त पारदर्शिता व समुदाय-हित को प्राथमिकता दी जाएगी?


