राजनीतिक हलकों में इस समय जो रणनीति सबसे चर्चा में है, वह है चुनाव-मेजर बनने जा रहा है। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर नरेंद्र मोदी चार दिनों में 12 जनसभाएँ करने जा रहे हैं।
मुख्य पहलू
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कार्यक्रम की शुरुआत 23 अक्टूबर से होगी और यह क्रम 3 नवंबर तक चलेगा।
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इस दौरान प्रतिदिन लगभग तीन-तीन रैलियाँ आयोजित की जाएंगी।
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रैलियों के प्रमुख जिलों में शामिल हैं: सासाराम, भागलपुर, गया (पहले दिन)– पटना, मुज़फ़्फरपुर, दरभंगा (दूसरे दिन)– पूर्वी चंपारण, समस्तीपुर, छपरा (तीसरे दिन)– पश्चिम चंपारण, सहरसा, अररिया (चौथे दिन)।
रणनीतिक मायने
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यह तीव्र प्रचार अभियान दर्शाता है कि गठबंधन राष्ट्रीय जनवादी गठबंधन (एनडीए) — जिसका नेतृत्व मोदी कर रहे हैं — बिहार में बड़ी जीत के लक्ष्य के साथ उतर रहा है।
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चार-दिन में इस तरह की घनघोर रैलियाँ यह दिखाती हैं कि केंद्र-शासन और पार्टी दोनों इस राज्य पर विशेष ध्यान दे रहे हैं।
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प्रतिदिन तीन जनसभाएँ करने का मतलब है कि बड़े-बड़े इलाकों में एक-साथ पैठ बनाने की कोशिश की जा रही है, ताकि वोट-बैंकों, युवा वर्ग, महिला वोटर और सामुदायिक ध्रुवीकरण को प्रभावी रूप से संबोधित किया जा सके।
चुनौतियाँ और सवाल
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इतने कम समय में इतनी रैलियाँ — क्या यह स्थानीय चिंताओं और स्थायी संपर्क की जगह लेगी?
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विपक्ष के पास इस प्रचार ता-दबा का मुकाबला करने के लिए कितनी तैयारी है?
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लगातार रैलियों से प्रचार-थकान, संसाधन-प्रबंधन और लोक-सहभागिता की समस्या भी हो सकती है।
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आख़िर चार-दिन की इस दौड़-धूप का लंबे अवधि में प्रभाव क्या रहेगा? केवल भाषण और जनसभा ही निर्णायक साबित होंगे या स्थानीय मुद्दों का जुड़ाव भी मापेगा जाएगा?


