झारखंड की धरती से उठे एक ऐसे नेता, जिनका नाम आज भी आदिवासी समाज के दिलों में गर्व के साथ सुनाया जाता है — जयपाल सिंह मुंडा। जीवन के हर मोड़ पर उन्होंने शिक्षा, खेल और समाज सेवा के बीच संतुलन बनाकर उस मार्ग को अपनाया, जो न सिर्फ प्रेरणा है बल्कि आदिवासियों के हक की आवाज बन गया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
जयपाल सिंह मुंडा का जन्म 1903 में खूंटी के टकरा पाहन टोली (टकरा पहाड़ के किनारे) में हुआ। बचपन से ही उनमें सीखने की भूख थी। रांची के सेंट पॉल हाई स्कूल से प्रारंभ हुई उनकी शिक्षा आगे उन्हें इंग्लैंड तक ले गई। अगस्ताइन कॉलेज, कैंटरबरी से आगे की पढ़ाई की और बाद में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला मिला। यही वह मोड़ था जिसने उनका जीवन पूरी दिशा दी।
खेल और ओलिंपिक सफलता
मुंडा की खेल-प्रति रुचि और उनकी प्रतिभा ने उन्हें हॉकी की दुनिया में स्थापित किया। इंग्लैंड में हॉकी क्लबों से जुड़ने के बाद वे और आगे बढ़े। 1928 में एम्सटरडम ओलिंपिक में उन्होंने नेतृत्व करते हुए भारत को हॉकी में पहला स्वर्ण पदक दिलाया।
नौकरी छोड़ समाजसेवी बनने की राह
शिक्षा और खेल में उत्कृष्टता के बाद उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस (ICS) की परीक्षा पास की — वो पहले आदिवासी जिन्हें यह उपलब्धि मिली। लेकिन सामाजिक असमानताओं और नस्लवाद को देखकर उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी। उनका मानना था कि असल सेवा तो समाज के लिए समर्पित होकर की जानी चाहिए।
राजनीति, संविधान सभा और आदिवासी अधिकार
जयपाल सिंह मुंडा वक्ता, संगठनकर्ता, विचारक, लेखक और राजनीतिक नेता सभी रूपों में प्रखर थे। 1946 में वे खूंटी क्षेत्र से चुने गए और संविधान सभा में पहुंच गए। यहाँ उन्होंने अभूतपूर्व साहस और दृढ़ता से आदिवासी हितों की वकालत की।
उनका एक प्रमुख प्रस्ताव था — आदिवासियों को “अनुसूचित जनजाति” न कह कर सिर्फ “आदिवासी” कहा जाए, क्योंकि उनका मानना था कि जाति व्यवस्था और सामाजिक विभाजन उन्हें विभाजित करने की कोशिश हैं। संविधान सभा में उनके हस्तक्षेप से आदिवासी समुदायों को विधान में और सरकारी नौकरियों में 400 समूहों तक आरक्षण का प्रावधान हुआ।
विरासत और महत्व
डॉ. भीमराव अंबेडकर की तरह, जयपाल सिंह मुंडा का नाम भी इतिहास में आदिवासी समाज के उत्थान के लिए स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना चाहिए। आज जब हम झारखंड की राजनीति, संस्कृति और आदिवासी चेतना की बात करते हैं, तो उनकी गाथा अनिवार्य है।


