यह कहानी लगभग 25 साल पहले की है, जब शिबू सोरेन (जिन्हें आदिवासी समाज में ‘दिशोम गुरु’ के नाम से भी जाना जाता है) और उनके आंदोलनों की चर्चा पूरे राज्य में हो रही थी।
उस समय पत्रकारिता के नाम से दैनमान के संपादक जवाहरलाल कौल टूंडी इलाके में उनसे मिलने पहुँचे थे। बातचीत के दौरान कौल ने सोरेन से यह पूछा- “क्या आप मार्क्सवादी हैं?”
इसके उत्तर में शिबू सोरेन ने कहा- “नहीं, मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ। मैंने मार्क्स तो नहीं पढ़ा है। जो कुछ पढ़ा है, वो महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण को पढ़ा है। उनसे प्रेरणा लेता हूँ।”
सोरेन के जीवन-संदर्भ में उनके पिता सोबरन सोरेन का नाम आता है, जो गाँधीवादी विचारों के समर्थक थे और गाँव-गाँव जाकर शिक्षा का प्रचार करते थे।
उनके पिता की हत्या उसके बाद हुई जब शिबू सोरेन की उम्र लगभग 13-14 वर्ष की थी। इस घटना ने उन्हें महाजन-प्रथा (भूमि-हथियाने वालों) के खिलाफ आवाज उठाने की प्रेरणा दी।
उन्होंने अपना जीवन-लक्ष्य बनाया कि वह महाजन-प्रथा को मिटाएँगे और आदिवासी समुदाय की जमीन वापस दिलाने का संघर्ष चलाएँगे। इस संघर्ष दौरान उन्होंने कई बार हिंसात्मक रूप भी लिया।
इस प्रकार, जब पत्रकार ने यह जिज्ञासा जताई कि क्या आप मार्क्सवादी हैं, तो दिशोम गुरु ने स्पष्ट-साफ कहा कि उनका स्रोत गांधी और जयप्रकाश हैं — मार्क्स नहीं।


