नई दिल्ली — प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार संजय सान्याल ने हाल ही में एक सम्मेलन में कहा कि भारत को विक्सित राष्ट्र बनाने की राह में न्यायपालिका (Judiciary) सबसे बड़ी बाधा बन चुकी है। उनका यह बयान कानूनी जगत में तहलका मचा गया है।
सान्याल ने कहा कि भारतीय न्याय प्रणाली और कानूनी व्यवस्था में सुधार न होने पर अन्य सुधारात्मक कदम भी बेरंग साबित होंगे। उन्होंने कहा कि विवादों का निस्तारण बहुत धीमी गति से होता है और अनुबंधों को लागू करना भी अक्सर कमजोर होता है।
उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि अदालतों में पारंपरिक शिष्टाचार जैसे “माय लॉर्ड” कहने की प्रथा और लंबे न्यायालय अवकाश (vacations) जैसे नियम समय की मांग के अनुरूप नहीं हैं।
इस बयान के जवाब में न्यायिक समुदाय से तीखी प्रतिक्रिया आई है। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) के पूर्व सचिव रोहित पांडेय और अधिवक्ता उज्जवल गौर ने एक पत्र के माध्यम से अटॉर्नी जनरल से अनुरोध किया है कि सान्याल के खिलाफ Contempt of Courts Act, 1971 के तहत कार्रवाई की जाए। उनका मानना है कि एक सार्वजनिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा ऐसा बयान देना न्यायपालिका की गरिमा को कमजोर कर सकता है।
वरिष्ठ अधिवक्ता विकास पहल ने भी सान्याल की टिप्पणी को “आपत्तिजनक और दुर्भाग्यपूर्ण” करार दिया है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को विकास की बाधा बताना संवैधानिक भूमिका और तंत्र की अवहेलना है।
वहीं अधिवक्ता हितेंद्र गांधी ने सान्याल को इस बारे में स्पष्टीकरण देने का आग्रह किया है। उन्होंने चेतावनी दी है कि ऐसी भाषा न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास को कमजोर कर सकती है।
विश्लेषकों का कहना है कि सान्याल का यह बयान न केवल विवादास्पद है, बल्कि यह एक संवेदनशील संवैधानिक संस्थान—न्यायपालिका—और कार्यपालिका/माध्यमिक संस्थाओं के बीच संतुलन की संवेदनशील स्थिति को भी उजागर करता है।
यह मामला आने वाले दिनों में और गरम होने की संभावना है क्योंकि न्यायपालिका, सरकार, और कानूनी पेशे की संस्थाएँ अब इस पर बहस और दिशा तय करने के लिए सामने आ सकती हैं।